ब्यूरो रिपोर्ट
भारत के संविधान निर्माता, सामाजिक समानता के प्रणेता और दलितों-पिछड़ों के मसीहा: डॉ. भीमराव अंबेडकर
डॉ. भीमराव अंबेडकर: भारत के संविधान निर्माता और सामाजिक समानता के प्रणेता पर बढ़ता विरोध – एक चिंतनभारत, एक ऐसा देश जहां विविधता में एकता की मिसाल दी जाती है, आज एक विचित्र दौर से गुजर रहा है। पिछले कुछ वर्षों में, खासकर विगत 14 वर्षों में, भारत के संविधान निर्माता, सामाजिक समानता के प्रणेता और दलितों-पिछड़ों के मसीहा डॉ. भीमराव अंबेडकर के खिलाफ बढ़ता विरोध न केवल चिंताजनक है, बल्कि यह देश की सामाजिक और नैतिक नींव पर भी सवाल उठाता है। यह विरोध, जो कभी खुले तौर पर तो कभी छिपे रूप में सामने आता है, निंदनीय है और यह सोचने पर मजबूर करता है कि आखिर भारत का सामाजिक ताना-बाना कहां जा रहा है?संविधान निर्माता की विरासत26 जनवरी 1950 को लागू हुआ भारत का संविधान विश्व में अपनी तरह का अनूठा दस्तावेज है। यह न केवल एक कानूनी ढांचा है, बल्कि सामाजिक समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का एक दर्शन है। इस संविधान के निर्माण में डॉ. अंबेडकर की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। उन्होंने न केवल दलितों और शोषित वर्गों के लिए आवाज उठाई, बल्कि हर धर्म, जाति, लिंग और क्षेत्र के लोगों को समान अधिकार देने का सपना देखा और उसे संविधान के रूप में साकार किया। विश्व में ऐसा कोई दूसरा संविधान नहीं जो इतनी विविधता को समेटे हुए भी एकता का प्रतीक हो। फिर भी, आज उसी संविधान निर्माता का विरोध क्यों?बढ़ता विरोध: कारण और मंशापिछले कुछ वर्षों में, विशेष रूप से मौजूदा सरकार के कार्यकाल में, डॉ. अंबेडकर के खिलाफ बयानबाजी और विरोध की घटनाएं बढ़ी हैं। देश के गृह मंत्री अमित शाह का संसद में दिया गया बयान, जिसमें उन्होंने कहा, "अंबेडकर-अंबेडकर जपने की बजाय भगवान को याद कर लीजिए," ने न केवल दलित और पिछड़े वर्गों को आहत किया, बल्कि यह भी सवाल उठाया कि क्या एक संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति ऐसी टिप्पणी कर सकता है? यह बयान न केवल अंबेडकर की विरासत का अपमान है, बल्कि यह उस संविधान का भी अपमान है जिसे उन्होंने रचा।इसके अलावा, सोशल मीडिया और सार्वजनिक मंचों पर अंबेडकर के खिलाफ दुष्प्रचार और उनकी छवि को धूमिल करने की कोशिशें भी बढ़ी हैं। कुछ लोग उन्हें केवल "दलित नेता" के रूप में सीमित करने की कोशिश करते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि अंबेडकर ने पूरे भारत के लिए एक समावेशी और प्रगतिशील दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। यह विरोध केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि उस विचारधारा के खिलाफ है जो समानता और सामाजिक न्याय की वकालत करती है।जातिगत भेदभाव: आज भी एक कड़वी सच्चाईडॉ. अंबेडकर ने अपने जीवनकाल में जातिगत भेदभाव और छुआछूत के खिलाफ अथक संघर्ष किया। उनके प्रयासों का नतीजा था कि संविधान में अनुच्छेद 17 के तहत छुआछूत को गैरकानूनी घोषित किया गया। लेकिन आज भी मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में दलितों और अछूत माने जाने वाले समुदायों के साथ भेदभाव की खबरें आम हैं। मंदिरों में प्रवेश से लेकर पानी के कुओं तक, दलितों को अपमान और हिंसा का सामना करना पड़ता है। यह स्थिति उस संविधान का मखौल उड़ाती है जो समानता की बात करता है।आश्चर्यजनक रूप से, कुछ लोग जो कानून की किताबों से अपनी आजीविका कमाते हैं, जो संविधान की शपथ लेते हैं, वे भी अंबेडकर के खिलाफ बोलने से नहीं हिचकते। यह दोहरा चरित्र न केवल उनकी मंशा पर सवाल उठाता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि समाज में जातिगत भेदभाव की जड़ें कितनी गहरी हैं।प्रधानमंत्री की चुप्पी: एक बड़ा सवालप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर कहते हैं कि वे ओबीसी समुदाय से आते हैं और पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध हैं। लेकिन जब उनके मंत्रिमंडल के सदस्य या पार्टी के नेता अंबेडकर के खिलाफ विवादास्पद बयान देते हैं, तो उनकी चुप्पी खलती है। यह चुप्पी न केवल अंबेडकर के प्रति अपमान को बढ़ावा देती है, बल्कि उन लाखों लोगों को भी निराश करती है जो अंबेडकर को अपना प्रेरणास्रोत मानते हैं।समानता का सपना: अधूरा क्यों?अंबेडकर का सपना था एक ऐसा भारत जहां जाति, धर्म या लिंग के आधार पर कोई भेदभाव न हो। लेकिन आज भी जब बात समानता की आती है, तो उच्च जाति के लोग खुद को श्रेष्ठ मानने लगते हैं। यह विडंबना है कि जब खून की जरूरत पड़ती है, तो कोई भी खून चलेगा, चाहे वह किसी भी जाति का हो। लेकिन जब सामाजिक व्यवहार की बात आती है, तो वही पुरानी मानसिकता हावी हो जाती है।आज अंबेडकर जीवित होते तो...यदि आज डॉ. अंबेडकर जीवित होते, तो शायद वे इस बात से आहत होते कि उनके बनाए संविधान का सम्मान तो होता है, लेकिन उसकी भावना को लागू करने में कमी रह जाती है। वे देखते कि दलित और पिछड़े वर्ग आज भी हाशिए पर हैं, और उनके खिलाफ होने वाला अन्याय कम होने के बजाय बढ़ रहा है। वे शायद यह सवाल उठाते कि आखिर वह कौन-सी ताकतें हैं जो समानता के इस यज्ञ में बाधा डाल रही हैं?आगे का रास्ताडॉ. अंबेडकर के विरोध को रोकने और उनके सपनों को साकार करने के लिए समाज और सरकार दोनों को मिलकर काम करना होगा। कुछ सुझाव इस प्रकार हैं:शिक्षा और जागरूकता: स्कूलों और कॉलेजों में अंबेडकर के विचारों और संविधान की भावना को पढ़ाया जाए, ताकि नई पीढ़ी जातिगत भेदभाव से मुक्त हो सके।कठोर कानूनी कार्रवाई: दलितों और पिछड़ों के खिलाफ होने वाले अत्याचारों पर त्वरित और सख्त कार्रवाई हो।राजनीतिक जवाबदेही: नेताओं और मंत्रियों को अंबेडकर और संविधान के प्रति सम्मान दिखाना होगा। विवादास्पद बयानों पर तुरंत कार्रवाई होनी चाहिए।सामाजिक संवाद: विभिन्न जातियों और समुदायों के बीच संवाद को बढ़ावा देना होगा, ताकि आपसी समझ और भाईचारा बढ़े।निष्कर्षडॉ. भीमराव अंबेडकर केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक विचारधारा हैं। उनका विरोध न केवल उनकी विरासत का अपमान है, बल्कि यह उस भारत के सपने का भी अपमान है जो समानता और न्याय पर आधारित है। यह समय है कि हम सब मिलकर इस बढ़ते विरोध का मुकाबला करें और अंबेडकर के सपनों को साकार करने की दिशा में काम करें। क्योंकि, जैसा कि अंबेडकर ने कहा था, "जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता हासिल नहीं करते, कानून द्वारा दी गई स्वतंत्रता आपके किसी काम की नहीं।" आइए, हम उस सामाजिक स्वतंत्रता की ओर कदम बढ़ाएं, ताकि भारत सही मायनों में अंबेडकर का भारत बन सके।