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झारखंड: हिंदी-मराठी भाषा विवाद: पृष्ठभूमि महाराष्ट्र, मराठी भाषा को सांस्कृतिक और राजनीतिक अस्मिता का माना जाता प्रतीक

हिंदी-मराठी भाषा विवाद: पृष्ठभूमि महाराष्ट्र, मराठी भाषा को सांस्कृतिक और राजनीतिक अस्मिता का माना जाता प्रतीक 


 नेशनल हेड लीगल एडवाइजर अधिवक्ता राजेश कुमार की विशेष रिपोर्ट

एंकर। खास तौर पर उत्तर भारतीयों लोगों पर हो रहेमहाराष्ट्र में हिंदी-मराठी भाषा विवाद: पृष्ठभूमिमहाराष्ट्र, विशेष रूप से मुंबई, भारत का आर्थिक केंद्र होने के साथ-साथ एक सांस्कृतिक और भाषाई मिश्रण का गढ़ भी है। यहां मराठी भाषा को सांस्कृतिक और राजनीतिक अस्मिता का प्रतीक माना जाता है, जबकि हिंदी और अन्य भाषाएं भी बड़े पैमाने पर बोली जाती हैं। हाल के वर्षों में, खासकर 2025 में, मराठी बनाम हिंदी विवाद ने एक नया रूप लिया है। इसका केंद्र बिंदु रहा है मराठी भाषा को अनिवार्य करने की मांग और गैर-मराठी भाषियों, विशेषकर हिंदी भाषी उत्तर भारतीयों के साथ होने वाला व्यवहार।हाल के समाचारों के अनुसार, ठाणे और मुंबई जैसे क्षेत्रों में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) के कार्यकर्ताओं द्वारा हिंदी भाषी दुकानदारों और मजदूरों के साथ मारपीट और अपमान की घटनाएं सामने आई हैं। उदाहरण के लिए, ठाणे स्टेशन पर एक दुकानदार को मराठी न बोलने के कारण कथित तौर पर अपमानित किया गया और उसे कान पकड़कर उठक-बैठक करने के लिए मजबूर किया गया। इसी तरह, मीरा रोड पर एक मिठाई की दुकान के मालिक बाबूलाल खिमी चौधरी के साथ MNS कार्यकर्ताओं ने मारपीट की, क्योंकि उनके कर्मचारियों ने हिंदी में बात की थी। इन घटनाओं के वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गए, जिससे व्यापक आक्रोश फैला।मराठी भाषा नीति और राजनीतिक पृष्ठभूमिमहाराष्ट्र में मराठी भाषा को बढ़ावा देने की मांग लंबे समय से रही है। यह मांग मराठी अस्मिता और सांस्कृतिक गौरव से जुड़ी हुई है। हाल ही में, महाराष्ट्र सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 के तहत त्रिभाषा नीति को लागू करने का प्रयास किया, जिसमें कक्षा 1 से 5 तक मराठी, हिंदी और अंग्रेजी को शामिल करने की बात थी। इस नीति के तहत हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाने का प्रस्ताव था, जिसका शिवसेना (उद्धव गुट) और MNS ने तीव्र विरोध किया। विरोध इतना बढ़ा कि 29 जून 2025 को सरकार को यह फैसला वापस लेना पड़ा।इस नीति के विरोध में उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे जैसे नेताओं ने मराठी अस्मिता के नाम पर एकजुटता दिखाई।

उद्धव ठाकरे ने सरकारी आदेश की प्रतियां जलाकर विरोध जताया, जबकि राज ठाकरे ने 5 जुलाई 2025 को मुंबई में एक मार्च का ऐलान किया। यह विरोध केवल शिक्षा नीति तक सीमित नहीं रहा, बल्कि सड़कों पर हिंदी भाषी लोगों के खिलाफ हिंसा के रूप में भी सामने आया।महाराष्ट्र के गृह राज्यमंत्री योगेश कदम ने विवादास्पद बयान दिया कि "महाराष्ट्र में मराठी तो बोलनी ही पड़ेगी," और मराठी न बोलने वालों का "एटीट्यूड" बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि कानून को अपने हाथ में लेने वालों के खिलाफ कार्रवाई होगी। दूसरी ओर, मंत्री नितेश राणे ने MNS कार्यकर्ताओं को चुनौती देते हुए कहा कि वे गरीब हिंदी भाषी लोगों को निशाना बनाने के बजाय अन्य समुदायों से मराठी बोलने की मांग करें।उत्तर भारतीयों के साथ व्यवहार: एक चिंताजनक स्थितिमहाराष्ट्र में हिंदी भाषी उत्तर भारतीयों, विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार से आए मजदूरों, दुकानदारों और छोटे कारोबारियों के साथ मारपीट और अपमान की घटनाएं चिंता का विषय बन गई हैं। ये लोग मुंबई और ठाणे जैसे शहरों में रोजगार के लिए आते हैं और स्थानीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। होटल, खुदरा व्यापार, परिवहन और सेवा क्षेत्र में उत्तर भारतीयों की भागीदारी उल्लेखनीय है। फिर भी, मराठी न बोलने के कारण उन्हें निशाना बनाया जा रहा है।उदाहरण के लिए:मीरा रोड की घटना: MNS कार्यकर्ताओं ने एक फास्ट फूड रेस्तरां के कर्मचारी को मराठी न बोलने पर थप्पड़ मारे और अपशब्द कहे।भांडुप में पिज्जा डिलीवरी बॉय: एक कपल ने डिलीवरी बॉय को पेमेंट देने से इनकार कर दिया, क्योंकि वह मराठी नहीं बोल पाया।ठाणे स्टेशन: एक हिंदी भाषी दुकानदार को मराठी न बोलने पर अपमानित किया गया और उसे कान पकड़कर उठक-बैठक करने को मजबूर किया गया।ये घटनाएं न केवल व्यक्तिगत स्तर पर अपमानजनक हैं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक स्तर पर भी गंभीर प्रभाव डालती हैं। उद्योग जगत ने चिंता जताई है कि इस तरह के विवादों से मजदूरों का पलायन हो सकता है, जिससे कारखानों, होटलों और अन्य व्यवसायों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।उत्तर भारतीय मुख्यमंत्रियों की चुप्पी: क्यों?उत्तर भारतीय राज्यों, विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार के मुख्यमंत्रियों की इस मुद्दे पर चुप्पी कई सवाल खड़े करती है। इसके पीछे कई संभावित कारण हो सकते हैं:राजनीतिक रणनीति: उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों के मुख्यमंत्री, जैसे योगी आदित्यनाथ और नीतीश कुमार, इस मुद्दे पर बोलने से बच रहे हैं, क्योंकि वे महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ बीजेपी-शिवसेना-एनसीपी गठबंधन (महायुति) के साथ अपने राजनीतिक संबंधों को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते। बीजेपी उत्तर भारतीय मतदाताओं की एक बड़ी समर्थक है, और महाराष्ट्र में भी उसका प्रभाव है। इस कारण, वे इस मुद्दे को तूल देने से बच रहे हैं। क्षेत्रीय संवेदनशीलता: भाषा और क्षेत्रीय अस्मिता के मुद्दे अत्यंत संवेदनशील होते हैं। उत्तर भारतीय मुख्यमंत्री इस मुद्दे को उठाकर महाराष्ट्र में मराठी अस्मिता के खिलाफ एक गलत संदेश नहीं देना चाहते, क्योंकि इससे दोनों राज्यों के बीच तनाव बढ़ सकता है।केंद्र सरकार पर निर्भरता: केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार होने के कारण, उत्तर भारतीय मुख्यमंत्री इस मुद्दे को केंद्र सरकार के हस्तक्षेप के लिए छोड़ रहे हैं। 


केंद्रीय गृह मंत्रालय ने पहले ही स्पष्ट किया है कि हिंदी किसी भाषा की विरोधी नहीं है, बल्कि सभी भारतीय भाषाओं की "सखी" है।स्थानीय समाधान की उम्मीद: उत्तर भारतीय मुख्यमंत्री शायद यह मान रहे हैं कि महाराष्ट्र सरकार और स्थानीय प्रशासन इस मुद्दे को हल कर लेगा। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने स्पष्ट किया है कि मराठी को बढ़ावा देना गलत नहीं है, लेकिन कानून तोड़ने वालों के खिलाफ कार्रवाई होगी।सामाजिक और आर्थिक प्रभावइस विवाद का प्रभाव केवल भाषा तक सीमित नहीं है। यह सामाजिक और आर्थिक स्तर पर भी गंभीर परिणाम ला सकता है:मजदूरों का पलायन: उद्योगपतियों का कहना है कि भाषा विवाद के कारण मजदूरों और छोटे कारोबारियों का पलायन हो सकता है, जो महाराष्ट्र की अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदायक होगा। सामाजिक तनाव: हिंदी भाषी और मराठी भाषी समुदायों के बीच तनाव बढ़ सकता है, जो सामाजिक एकता को कमजोर करेगा।राजनीतिक ध्रुवीकरण: यह मुद्दा आगामी स्थानीय निकाय चुनावों, विशेषकर बीएमसी चुनाव, में एक बड़ा राजनीतिक हथियार बन सकता है। MNS और शिवसेना (UBT) इसे मराठी अस्मिता के नाम पर भुनाने की कोशिश कर रहे हैं।क्या है समाधान?इस जटिल मुद्दे का समाधान तभी संभव है, जब सभी पक्ष संवेदनशीलता और संवाद के साथ आगे बढ़ें। कुछ संभावित उपाय निम्नलिखित हैं:कानूनी कार्रवाई: मारपीट और अपमान की घटनाओं में शामिल लोगों के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए। महाराष्ट्र सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि कानून का पालन हो और किसी को भाषा के नाम पर निशाना न बनाया जाए।संवाद और जागरूकता: मराठी और हिंदी भाषी समुदायों के बीच संवाद को बढ़ावा देना होगा। भाषा को एकता का माध्यम बनाना चाहिए, न कि विवाद का।शिक्षा नीति में लचीलापन: त्रिभाषा नीति को लागू करने में राज्यों को अधिक स्वायत्तता दी जानी चाहिए, ताकि क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा मिले, लेकिन अन्य भारतीय भाषाओं का भी सम्मान हो।केंद्र का हस्तक्षेप: केंद्र सरकार को इस मुद्दे पर स्पष्ट दिशानिर्देश जारी करने चाहिए, ताकि भाषा के नाम पर हिंसा को रोका जा सके। सांस्कृतिक एकता पर जोर: भारत की सांस्कृतिक और भाषाई विविधता को एक ताकत के रूप में प्रस्तुत करना होगा। मराठी, हिंदी, और अन्य भाषाएं एक-दूसरे की पूरक होनी चाहिए, न कि प्रतिस्पर्धी।

 निष्कर्षमहाराष्ट्र में हिंदी भाषी उत्तर भारतीयों के साथ हो रहा व्यवहार एक गंभीर सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा है, जो भारत की एकता और अखंडता पर सवाल उठाता है। मराठी भाषा और संस्कृति का सम्मान करना उतना ही जरूरी है, जितना हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं का। इस विवाद को केवल कानूनी कार्रवाई और संवाद के माध्यम से ही सुलझाया जा सकता है। उत्तर भारतीय मुख्यमंत्रियों की चुप्पी निश्चित रूप से निराशाजनक है, लेकिन यह समय है कि सभी पक्ष इस मुद्दे को राजनीतिक हथियार बनाने के बजाय रचनात्मक समाधान की दिशा में काम करें। भाषा को जोड़ने का माध्यम बनना चाहिए, न कि तोड़ने का।अंत में, यह याद रखना जरूरी है कि भारत का संविधान सभी नागरिकों को भाषा की स्वतंत्रता देता है। किसी भी व्यक्ति को उसकी भाषा के आधार पर अपमानित करना या हिंसा का शिकार बनाना न केवल असंवैधानिक है, बल्कि मानवता के खिलाफ भी है।

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