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इटावा/जसवंतनगर:नगर में कैला त्रिगमा देवी मंदिर परिसर में विगत 24 फ़रवरी से चल रही श्रीमद भागवत कथा शुक्रवार को सुदामा चरित्र की कथा सुनाने के साथ ही समापन हो गया

संवाददाता:मनोज कुमार(7409103606)


संजयकुमार शास्त्री ने सुदामा के वारे में कई गूढ रहस्य भी बताये.

बताया कि सुदामा नगरी से द्वारिका तक की यात्रा 60 दिनों में पूरी की थी. ज़ब सुदामा द्वार पर पहुँचे, तो श्रीकृष्ण ने अपनी योगमाया से जान लिया था कि हमारे द्वार पऱ हमारा मित्र सुदामा आया हुआ है. वे दौड़े दौड़े द्वार तक आते है. भगवान जिनसे मिलने के लिये स्वयं दौड़ लगा रहे हों उनका जीवन और चरित्र कितना पुण्य मय होगा आप स्वयं सोचिये.


आदर सत्कार के वाद श्री कृष्ण उनका हाल चाल पूंछते है. मित्र सुदामा आपकी शादी बगैरह हुई है या नहीं. सुदामा कहते है अब आप राजा बनने के वाद भी तनिक भी बदले नहीं हो, कहता है हाँ शादी तो हो गईं है. तो फिर भाभी ने हमारे लिये कुछ तो भेजा होगा. अपनी भेंट को वह छुपाने की कोशिश करता है. तभी भगवान उसकी काँख से वो पोटली खींच लेते है. और विना विलम्ब किये उसमें से एक मुठ्ठी चावल खा कर उनको दो लोक प्रदान कर देते है. अपनी पत्नी रुक्मिणी से भी कहते है तुम इनको कोई आशीर्वाद प्रदान नहीं करोगी, रुक्मिणी ने चावल भेजनें बाली को चिर यौवना का आशीर्वाद प्रदान किया.भोजन की व्यवस्था होती है. सोने और चांदी के बर्तनों में ज़ब भोजन आता है. तभी सुदामा को अपनी गरीबी याद आ जाती है.और उनके नेत्रों से आँसू झलक आते है.कृष्ण कहते है मित्र भोजन करो सुदामा कहता है मुझे भूख नहीं है.वह सोच रहा है यहाँ हम सोने के वर्तनों में भोजन कैसे करें हमारी पत्नी तो भूखी ही होगी हमको इतने दिन जो लग गये है।


सुदामा ने कृष्ण से कुछ भी माँगा नहीं था.जिन वस्त्रों में गये थे उन्ही वस्त्रो में वापस आये थे. वातो बातों में ब्रह्माकाल शुरू हो जाता है सुदामा घर जाने की वात करते है. कृष्ण कुछ दिन रुकने की कहते है. पऱ सुदामा एक दिन ही रुक कर दूसरे दिन वापस चल देते है.सभी रानियों पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त कर रही है. ज़ब उसने देखा कि ये तो लाइन ही खत्म नहीं हो रही है क्योंकि सोलह हजार एक सौ आठ रानियां थी. सुदामा कहता है हम कितने वार हाथ ऊपर नीचे करेंगे हम थक जायेंगे. इसलिए आ तेरे कान में एक बात बता दूँ तू केवल हमारे पैर छू लें सभी रानियों और पट रानियों को हमारा आशीर्वाद स्वतः पहुँच जायेगा.

ये है सुदामा आज भगवान ख़ुद सुदामा के पैर पकड़ रहे है. धन्य है वो सुदामा..सुदामा सोचते है हमने कुछ माँगा नहीं, और इसने भी कुछ दिया नहीं. खैर हमको तो मरना मंजूर है पऱ माँगना मंजूर नहीं था. कुछ दूर चलने के वाद सुदामा कृष्ण से कहता है आप लौट जाओ अब मैं चला जाऊँगा. कृष्ण ने कहा कि जाते बख्त कुछ तो आशीर्वाद दे दो।


दुनियाँ को देने बाला आज याचक बना खड़ा है. जो माँगने आया था उसने कुछ माँगा नहीं, और जिसको देना था वह ख़ुद मांग रहा है कैसी ये लीला है.सुदामा को कुछ मिला तो था नहीं सो गुस्सा तो अंदर से था ही सो,वोला जो तुम्ह दीन सोइ तुम पावा. इस तरह से मिले हुये दोनों लोक वापस कर दिये.घर पऱ झोपडी की जगह महल बना खड़ा है. द्वारपाल भी खडे है. पूछता है ये महल किसका है. और हमारी झोपडी क्यों हटा दी. द्वारपाल ने बताया हमको ज्यादा कुछ तो मालूम नहीं है पऱ इतना मालूम है इसका राजा वाहर द्वारिका गये हुये है

तो कोई तो होगा हाँ इनकी मालकिन वहाँ एक पेड के नीचे तुलसी की पूजा अर्चना करती रहती है. वो भी कभी महल में नहीं आई. दोनों का मिलन होता है. पत्नी सुदामा का हाथ पकड़ कर महल में ले जाने लगती है. सुदामा कहते है अब हमारा चौथा पन आ गया है. हम महल में नहीं वन में जाऊँगा.


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