विशेष रिपोर्ट नेशनल हेड लीगल एडवाइजर अधिवक्ता राजेश कुमार की कलम से
लिखने समाज को एक संदेश। एंकर भारत में वृद्धाश्रम, बाल आश्रम और महिला अनाथालयों की स्थिति: मानवता पर सवाल और व्यवस्था की नाकामी। हाल ही में उत्तर प्रदेश के नोएडा में आनंद निकेतन वृद्ध सेवा आश्रम में सामने आए अमानवीय हालात ने देश में चल रहे वृद्धाश्रमों, बाल आश्रमों और महिला अनाथालयों की वास्तविक स्थिति पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। इस घटना में 42 बुजुर्गों को दयनीय परिस्थितियों में पाया गया—कुछ के हाथ-पैर बंधे हुए थे, कुछ बिना कपड़ों के, और कई तहखाने जैसे कमरों में बंद थे। यह आश्रम 1994 से बिना वैध पंजीकरण के चल रहा था, और लाखों रुपये की वसूली के बावजूद वहां कोई देखभाल नहीं थी। यह सिर्फ नोएडा का मसला नहीं है, बल्कि यह पूरे देश में इन आश्रमों की स्थिति और समाज, पुलिस, और सरकार की जवाबदेही पर सवाल उठाता है।आश्रमों की वास्तविकता: क्या सब कुछ ठीक-ठाक है?भारत में वृद्धाश्रम, बाल आश्रम, और महिला अनाथालयों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, लेकिन इनकी गुणवत्ता और संचालन पर सवाल बरकरार हैं।नोएडा के इस मामले में बुजुर्गों को न केवल बंधक बनाकर रखा गया, बल्कि उन्हें नशीली दवाएं देकर सुलाने और अमानवीय व्यवहार करने की बात सामने आई। यह एकमात्र घटना नहीं है। पहले भी कई आश्रमों में दुरुपयोग, शोषण, और उपेक्षा के मामले सामने आए हैं, जैसे कि गोंडा में आसाराम के आश्रम में बच्ची की लाश मिलना या छत्तीसगढ़ में आश्रमों में बच्चों की मौतें।क्या सभी आश्रमों में सब कुछ ठीक-ठाक है? इसका जवाब स्पष्ट रूप से नकारात्मक है। कई आश्रम बिना पंजीकरण के चल रहे हैं, और जो पंजीकृत हैं, उनमें भी नियमों का पालन नहीं होता। नोएडा के आश्रम में एक "नर्स" केवल 12वीं पास थी, और कोई प्रशिक्षित स्टाफ नहीं था। यह स्थिति सिर्फ वृद्धाश्रमों तक सीमित नहीं है।
बाल आश्रमों में बच्चों के साथ दुष्कर्म और उपेक्षा की खबरें, और महिला अनाथालयों में यौन शोषण और हिंसा की घटनाएं बार-बार सामने आती हैं।सरकार की भूमिका: बड़े दावे, खोखली हकीकतसरकार बड़े-बड़े दावे करती है—चाहे वह आयुष्मान भारत योजना हो या राष्ट्रीय पेंशन प्रणाली—लेकिन जमीनी हकीकत में ये योजनाएं आश्रमों तक नहीं पहुंचतीं। नोएडा के मामले में आश्रम को जन कल्याण ट्रस्ट द्वारा संचालित किया जा रहा था, जिसे सरकार से अनुदान भी मिलता था, फिर भी वहां की स्थिति नर्क से बदतर थी। समाज कल्याण विभाग और जिला प्रशासन ने छापेमारी के बाद आश्रम को सील करने और बुजुर्गों को स्थानांतरित करने की बात कही, लेकिन यह कार्रवाई तब हुई जब वीडियो वायरल हो गया।इससे पहले न तो समाज कल्याण विभाग ने और न ही स्थानीय प्रशासन ने इसकी सुध ली।महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा स्वाधार गृह और अल्पकालिक आश्रय गृह जैसी योजनाएं चलाई जाती हैं, लेकिन इनके कार्यान्वयन में कमी स्पष्ट दिखती है। गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) को दी जाने वाली फंडिंग और निगरानी की प्रक्रिया अपारदर्शी है। कई एनजीओ बिना उचित जांच के अनुदान प्राप्त करते हैं, और उनके संचालन की निगरानी नहीं होती।पुलिस की उदासीनता: जवाबदेही का अभावपुलिस की भूमिका भी इस मामले में निराशाजनक रही है। नोएडा के आश्रम में अमानवीय व्यवहार की शिकायत राज्य महिला आयोग को मिलने के बाद ही पुलिस हरकत में आई। क्या पुलिस ने कभी स्वतः संज्ञान लेकर ऐसे आश्रमों का औचक निरीक्षण किया? जवाब है—नहीं। पुलिस तंत्र में मानवता और जवाबदेही का अभाव साफ झलकता है। भ्रष्टाचार और लापरवाही के चलते पुलिस अक्सर ऐसी घटनाओं को नजरअंदाज करती है।
नोएडा में एक नाबालिग को बंधक बनाकर प्रताड़ित करने का मामला भी एनजीओ की मदद से ही सामने आया, न कि पुलिस की सक्रियता से।पुलिस की यह उदासीनता न केवल आश्रमों की स्थिति को बदतर बनाती है, बल्कि आम जनता में भी विश्वास की कमी पैदा करती है। राष्ट्रीय महिला आयोग और अन्य शिकायत निवारण तंत्र मौजूद हैं, लेकिन उनकी पहुंच और प्रभाव सीमित हैं।समाज की उदासीनता: मानवता का पतननोएडा की घटना ने यह भी दिखाया कि समाज भी अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ रहा है। कई परिवार अपने बुजुर्गों को आश्रमों में छोड़ देते हैं, यह सोचकर कि उनकी देखभाल हो जाएगी। लेकिन क्या वे कभी इन आश्रमों की स्थिति जांचते हैं? सामाजिक उदासीनता का आलम यह है कि लोग ऐसी घटनाओं को तब तक नजरअंदाज करते हैं, जब तक कोई वीडियो वायरल न हो।
नोएडा के मामले में भी वायरल वीडियो ने ही प्रशासन को कार्रवाई के लिए मजबूर किया।सामाजिक जागरूकता की कमी और मानवता के प्रति उदासीनता ने स्थिति को और गंभीर बना दिया है। लोग न तो पुलिस को सूचित करते हैं और न ही स्थानीय प्रशासन को। यह समाज का वह चेहरा है, जहां मानवता गौण हो गई है और व्यक्तिगत व्यस्तताएं प्राथमिकता बन गई हैं।क्या है समाधान?कठोर नियम और निगरानी: सभी वृद्धाश्रम, बाल आश्रम, और महिला अनाथालयों का अनिवार्य पंजीकरण और नियमित निरीक्षण सुनिश्चित किया जाए। एनजीओ और निजी संस्थाओं की जवाबदेही तय हो, और अनुदान की पारदर्शी प्रक्रिया लागू हो।पुलिस की सक्रियता: पुलिस को नियमित रूप से आश्रमों का औचक निरीक्षण करना चाहिए। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए एक विशेष टास्क फोर्स गठित की जाए, जो इन स्थानों की स्थिति की निगरानी करे।
सामाजिक जागरूकता: सामुदायिक स्तर पर जागरूकता अभियान चलाए जाएं, ताकि लोग आश्रमों की स्थिति पर नजर रखें और शिकायतों को उचित मंच तक पहुंचाएं।सरकारी जवाबदेही: समाज कल्याण विभाग और महिला आयोग को और सक्रिय और जवाबदेह बनाया जाए। उनके पास संसाधनों और अधिकारों की कमी नहीं होनी चाहिए।कानूनी कार्रवाई: नोएडा जैसे मामलों में दोषियों के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई हो, ताकि भविष्य में ऐसी घटनाएं न हों।निष्कर्षनोएडा का आनंद निकेतन वृद्धाश्रम का मामला केवल एक आश्रम की कहानी नहीं है, बल्कि यह देश में चल रहे तमाम आश्रमों की बदहाली और व्यवस्था की नाकामी का प्रतीक है। सरकार के बड़े-बड़े दावे, पुलिस की उदासीनता, और समाज की लापरवाही ने मिलकर मानवता को शर्मसार किया है। यह समय है कि हम सब अपनी जिम्मेदारी समझें—चाहे वह सरकार हो, पुलिस हो, एनजीओ हो, या आम नागरिक। बदलता हुआ भारत तभी सही मायनों में प्रगति करेगा, जब हम कमजोर और असहाय लोगों की रक्षा के लिए एकजुट होंगे।